उप-राष्ट्रपति ने कहा @ संसद और विधानसभाओं के कामकाज में व्यवधान लोगों के जीवन और राष्ट्र के सपनों में बाधक है

देश
नई दिल्ली 

विधायी सदनों के कामकाज़ में बढ़ते व्यवधान और देश के संसदीय लोकतंत्र की गुणवत्ता में आ रही कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति  एम. वेंकैया नायडू ने वर्तमान स्थिति में बदलाव लाने के लिए कानून बनाने वाली संस्थाओं के 5,000 सांसदों, विधायकों और एमएलसी के आचरण को प्रभावित करने के लिए आज एक जन आंदोलन का आह्वान किया। श्री नायडु ने इसे ‘मिशन 5000’ करार देते हुए कहा कि संसदीय लोकतंत्र की गरिमा के आकर्षण को खोने से बचाने के लिए इस तरह के अभियान की आवश्यकता है।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की पहली पुण्य तिथि पर ‘प्रणब मुखर्जी लिगेसी फाउंडेशन’ द्वारा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आयोजित पहले ‘प्रणब मुखर्जी स्मृति व्याख्यान’में बोलते हुए श्री नायडू ने विधायी सदनों के काम-काम में व्यवधान और उनके काम न करने के दुष्प्रभावों के बारे में विस्तार से बात की। स्मृति व्याख्यान का विषय था ‘संविधानवाद; लोकतंत्र और समावेशी विकास का गारंटर’।

स्वर्गीय श्री प्रणब मुखर्जी के 50 वर्षों के सक्रिय सार्वजनिक जीवन का उल्लेख करते हुए उप-राष्ट्रपति ने कहा कि उन्होंने विभिन्न क्षमताओं में विभिन्न पदों और क्षेत्रों में कार्य किए। उन्होने 21 वर्षों तक केंद्रीय मंत्री के रूप में अपना योगदान दिया। एक अपर डिवीजनल क्लर्क से भारत के राष्ट्रपति बनने तक का सफर उन्होंने तय किया। श्री नायडू कहा कि दिवंगत नेता को ‘हर महत्वाकांक्षी राजनेता से ईर्ष्या हो सकती है लेकिन वह राष्ट्र के लिए गौरव हैं।

‘संविधानवाद’ की अवधारणा के बारे में विस्तार से बताते हुएश्री नायडू ने कहा कि लोकतन्त्र का उदय सदियों की राजशाही और अभिजात वर्ग के शासन के बाद हुआ। लोकतन्त्र में ऐसा शासन को सुनिश्चित करने की अपेक्षा होती है जो संविधान की भावना और प्रावधानों पर आधारित विधायी संस्था से संचालित होती हो ताकि सरकारों के मनमाने और स्वेछाचारी शासन को रोका जा सके।

उपराष्ट्रपति ने सहभागी लोकतंत्र के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भारतीय संविधान को एक ठोस दस्तावेज़ बताते हुए, जोर देकर कहा कि “शासन में प्रत्येक नागरिक को शामिल किया जाना चाहिए जो कि लोकतंत्र में अत्यंत आवश्यक है। उन्होने कहा कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि विकास का लाभ सभी को मिले, यही समावेशी विकास है। केवल संविधानवाद का कड़ाई से पालन ही वास्तविक लोकतंत्र और समावेशी विकास को सुनिश्चित कर सकता है।

श्री नायडू ने कहा कि जब तक सदन की गरिमा और मर्यादा का उल्लंघन न हो, तब तक विधायी सदनों में विरोध अनुचित नहीं है। उन्होंने कहा किसरकारों की गलत नीतियों और आयोगों के खिलाफ विरोध करना विधायी प्रतिनिधियों का अधिकार हैख्‍ लेकिन ऐसे विरोधों का आधार भावनात्मक नहीं होना चाहिए और विरोध में शालीनता तथा संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा बनाए रखी जानी चाहिए। इसे सुनिश्चित करने के लिएमैं इस बात की वकालत करता रहा हूं कि ‘सरकार को प्रस्ताव करने दें, विपक्ष को विरोध करने दें और सदन कामकाज निपटाए’।

उन्होने कहा कि संविधानवाद सभी पक्षों के बीच व्यापक विचार-विमर्श से सरकारों की मनमानी पर रोक लगता है। श्री नायडू ने कहा, कि कानून बनाने के लिए उत्तरदायी प्रतिनिधि अगर विधायी सदनों में व्यवधान का कारण होंगे और काम-काज नहीं निपटाएंगे तो नीतियों और क़ानूनों को तैयार करने से पहले वांछित व्यापक परामर्श की परंपरा का निर्वाह नहीं होगा। इस तरह के व्यवधान से विधायिकाओं के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही के सिद्धांत की पूर्ति नहीं होती हैं, जिससे मनमानी की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है, जिसे संविधानवाद नियंत्रित रखना चाहता है’।

इस बात पर दुख प्रकट करते हुए कि बाधित और काम-काज न करने वाली विधायिकाएं लोगों के जीवन और हमारे देश के सपनों के लिए बाधक बन सकती हैं, श्री नायडू ने ‘मिशन 5000’ की रूपरेखा को रेखांकित किया, जिसका उद्देश्य समय-समय पर चुने गए 5000 जन प्रतिनिधियों के व्यवहार को बदलना है। इस मिशन के तहत, श्री नायडु ने नागरिकों से आग्रह किया कि वे व्यवधान उत्पन्न करने वाले प्रतिनिधियों की पहचान करें और अपने संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों के दौरे के दौरान उनसे सवाल करें; #मिशन5000 सोशल मीडिया हैंडल लॉन्च करें और टिप्पणियों के साथ ऐसे प्रतिनिधियों के नाम प्रकाशित करें; ऐसे सदस्यों के कामकाज पर चर्चा करने के लिए बैठकें आयोजित करें; दैनिकों समाचार पत्रों को अपना संदेश लिखकर ऐसे लोगों के आचरण पर चिंता व्यक्त करें; ऐसे प्रतिनिधियों को सीधे अपना संदेश भेजकर रोष प्रकट करें और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगले चुनावों में मतदान करते समय ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों के संसदीय प्रदर्शन और आचरण को ध्यान में रखा जाए।

श्री नायडू ने देश की आजादी के 75वें वर्ष में देश भर के सभी सांसदों, विधायकों और एमएलसी से इस वर्ष के दौरान सदनों को बाधित नहीं करने का संकल्प लेने का आग्रह किया। उन्होंने आगे कहा कि”इसके बाद, मैं उन्हें आश्वस्त कर सकता हूं कि यह विधायिकाओं में उनके रचनात्मक आचरण को सुवासित करेगा और मीडिया तथा बड़े पैमाने पर लोगों से मिलने वाली प्रशंसा उन्हें इसे सदैव की आदत बनाने के लिए प्रेरित करेगी।

अगले 25 वर्षों के लिए देश के एजेंडे पर बोलते हुए, श्री नायडु ने कहा कि समावेशी विकास रणनीतियों और राजनीति के अंतर्गत गरीबी, निरक्षरता, लैंगिक भेदभाव और असमानताओं को खत्म करना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। उन्होंने उम्मीद जताई कि देश में आधा दर्जन महिला मुख्यमंत्रियों के अलावा कमजोर तबके के प्रधानमंत्री होंगे।

श्री वेंकैया नायडू ने आगे यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया कि खेती एक लाभकारी उद्यम बने और किसानों को सभी प्रकार के शोषण से मुक्त किया जाए। उन्होंने सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र के योगदान को बढ़ाकर दोगुना करके कृषि कार्यबल को विनिर्माण क्षेत्र में लगाने के एक बड़े बदलाव का आह्वान किया।उन्होने कहा कि जब भारत की स्वाधीनता के 100 वर्ष पूरे हो रहे होंगे, तब देश निवेश और अप्रवासियों के लिए पसंदीदा गंतव्य के रूप में उभर रहा होगा। श्री नायडू ने इस अवधि के दौरान भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उचित स्थान मिलने का भी उल्लेख किया।

स्वर्गीय श्री प्रणब मुखर्जी के तीक्षण बुद्धि और असाधारण स्मरण शक्ति से संपन्न होने और विभिन्न विवादास्पद मुद्दों पर सर्वसम्मति बनाने के लिए 95 मंत्री समूहों की अध्यक्षता करने की उनकी विशेषता का उल्लेख करते हुएश्री नायडू ने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति हाल ही में पूर्वव्यापी कराधान को पूर्ववत करने का समर्थन करते, जिसे उन्होने अपने वित्त मंत्री काल में प्रस्तुत किया था।

वर्ष 2018 में नागपुर में आरएसएस के एक प्रशिक्षण शिविर में पूर्व राष्ट्रपति के सम्मिलित होने का उल्लेख करते हुएश्री नायडू ने कहा कि यह व्यापक हित में वैचारिक मतभेद से ऊपर उठने की प्रणब मुखर्जी की क्षमता का एक दस्तावेज़ था। नागपुर में पूर्व राष्ट्रपति की राष्ट्रवाद की परिभाषा को याद करते हुए श्री नायडू ने कहा कि इस समय राष्ट्रवाद और देशभक्ति भले ही कोई भी कितनी भी बात कर रहा है, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा पूर्व राष्ट्रपति द्वारा इसके बारे में कही गई बातों की होती है।

इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्यपाल श्री शेखर दत्त, भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी की पुत्री सुश्री शर्मिष्ठा मुखर्जी और अन्य उपस्थित थे।

सम्बोधन का मूल पाठ निम्न लिखित है:

“प्रिय बहनों और भाइयों!

समय कितनी तेजी से भागता जा है,भारत में सार्वजनिक जीवन के दिग्गजों में से एक माननीय प्रणब मुखर्जी के राष्ट्र निर्माण में लंबे और रचनात्मक जीवन के बाद इस संसार को छोड़कर गए एक वर्ष पूरे हो गए हैं। मुझे उनके ज्ञान से भरे विचारों से लाभान्वित होने के साथ-साथ उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने का सौभाग्य मिला है।

मैं ‘प्रथम प्रणब मुखर्जी स्मृति व्याख्यान’ देने का अवसर पाकर वास्तव में सम्मानित महसूस कर रहा हूं,जिसका आयोजन उनकी प्रतिभाशाली पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी और अन्य सहयोगियों द्वारा स्थापित ‘प्रणब मुखर्जी लिगेसी फाउंडेशन’ द्वारा किया गया है। प्रणब दा के जीवन और कार्यों से भावी पीढ़ी को प्रेरित और लाभान्वित करने के लिए इस पहल को शुरू करने के लिए मैं शर्मिष्ठा जी को बधाई देता हूं।

प्रणब दा उन प्रतिष्ठित राजनेताओं में से थे जिन्होंने आधुनिक भारत की यात्रा में अमूल्य और बहुआयामी योगदान दिया। वह स्वतंत्र भारत की 74 साल की यात्रा में 50 से अधिक वर्षों तक एक प्रमुख भागीदार रहे। उन्होंने विभिन्न क्षमताओं में अपनी खुद की छाप छोड़ी और उन्होंने भारत माता की सेवा की। यह सभी मायने और मानकों से एक उल्लेखनीय और शानदार यात्रा थी। इस यात्रा को उचित परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए, हमें इसे याद करने की आवश्यकता है।

प्रणब दा ने पश्चिम बंगाल के एक सुदूर गांव ‘मिराती’ में दिये की झिलमिलाहट से, दिल्ली के चकाचौंध वाले झाड फ़ानूस तक का कई मील लंबा सफर पूर्ण किया। डाक और टेलीग्राफ कार्यालय में एक अपर डिवीजन क्लर्क (यूडीसी) से, वह भारत के राष्ट्रपति पद तक पहुंचे। प्रणब दा ने अपनी कड़ी मेहनत और योगदान के आधार पर हर कार्यालय में सम्मान अर्जित किया।

1969 में बंगाल कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में 34 वर्ष की आयु में पहली बार राज्यसभा में प्रवेश करने के साथ प्रणब दा की सावजनिक जीवन की यात्रा का आरंभ होता है। इसके बाद, उन्होंने 1973 से 13 बार केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्य किया और दस महत्वपूर्ण मंत्रालयों / विभागों के कामकाज का मार्गदर्शन किया। वह 21 वर्षों से अधिक की लंबी अवधि के लिए वित्त, विदेश, रक्षा, वाणिज्य, औद्योगिक विकास, इस्पात और खान, आपूर्ति आदि मंत्री थे। वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी थे। प्रणब दा पांच बार राज्यसभा के सदस्य और दो बार लोकसभा के सदस्य रहे। इन सबके बाद वह हमारे देश के प्रथम नागरिक बने। हमारे देश में बहुत कम नेता ऐसे होंगे जिन्हें इतनी लंबी अवधि के लिए और इतनी विविध क्षमताओं में हमारे देश की सेवा करने का सौभाग्य मिला। एक सार्वजनिक मंच से मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि प्रणब दा से हर महत्वाकांक्षी राजनेता को ईर्ष्या होती थीलेकिन वह तो राष्ट्र का गौरव थे।

प्रणब दा सत्ता में लंबे वर्षों तक रहे लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उनके योगदान ने उन्हें कई मायनों में अद्वितीय बना दिया। उन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपने तेज दिमाग, अभूतपूर्व स्मृति, हमारे देश की विविधता की गहरी समझ, इतिहास और सभ्यतागत मूल्यों से उनके जुड़ाव को समर्पित कर दिया था। मैंने उन्हें कठिन परिस्थितियों में पथ-प्रदर्शक के रूप में जाना और देखा है। जटिल परिस्थितियों के एक बेदाग पर्यवेक्षक के रूप में, प्रणब दा ने खुद को सर्वसम्मति बनाने वाले एक नेता के रूप में साबित किया और ऐसी कई स्थितियों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह इस तथ्य से पैदा हुआ था कि उन्होंने सार्वजनिक जीवन में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान 95 मंत्री समूहों (जीओएम) की अध्यक्षता की।

एक से अधिक बार वित्त मंत्री के रूप में, प्रणब दा ने हमारे देश के वित्त में सुधार करने का प्रयास किया। उन्होंने हमारे देश में 80 के दशक की शुरुआत में पहली बार आईएमएफ ऋण की अंतिम किस्त को मंजूरी देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने वित्त और वाणिज्य दोनों मंत्री के रूप में एक प्रारंभिक सुधारक होने के अलावा बजट घाटे को लक्षित करना भी शुरू किया। विदेश मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मजबूत संबंध बनाते हुए भी रूस के साथ हमारे संबंधों को चतुराई से संभाला। उनके कार्यकाल के दौरान भारत आसियान का पूर्ण वार्ता भागीदार बना। अपनी संस्था निर्माण क्षमता के लिए जाने जाने वाले, प्रणब दा ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शुरुआत की, एक्जिम बैंक की स्थापना की और विश्व व्यापार संगठन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये केवल कुछ दृष्टांत हैं। उन्होंने कार्यालय में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान लिए गए कई महत्वपूर्ण निर्णयों और शुरू की गई पहलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

वित्त मंत्री के रूप मेंप्रणब दा ने हमारे देश की वित्तीय दशा में सुधार करने का प्रयास किया। उन्होंने हमारे देश में 80 के दशक की शुरुआत में पहली बार आईएमएफ ऋण की अंतिम किस्त को मंजूरी देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने वित्त और वाणिज्य दोनों मंत्री के रूप में एक प्रारंभिक सुधारक होने के अलावा बजट घाटे को लक्षित करना भी शुरू किया। विदेश मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मजबूत संबंध बनाते हुए भी रूस के साथ हमारे संबंधों को चतुराई से संभाला। उनके कार्यकाल के दौरान भारत आसियान का पूर्ण वार्ता भागीदार बना। अपनी संस्था निर्माण क्षमता के लिए जाने जाने वाले, प्रणब दा ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शुरुआत की, एक्जिम बैंक की स्थापना की और विश्व व्यापार संगठन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये केवल कुछ दृष्टांत हैं। उन्होंने कार्यालय में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान लिए गए कई महत्वपूर्ण निर्णयों और शुरू की गई पहलों में महत्वपूर्ण भी भूमिका निभाई।

फरवरी, 2019 में मेरे ‘चयनित भाषणों’ के पहले खंड को जारी करते हुए, प्रणब दा ने समावेशी और सतत विकास की आवश्यकता और ‘अंत्योदय’ और ‘सर्वोदय’ की अवधारणाओं पर विस्तार से बात की, जो हमारे सभ्यतागत मूल्यों का आधार हैं,जो शासन और प्रशासन के मार्गदर्शक सिद्धांत हैं। यह विजन जो हमने साझा किया, वह हमारे संविधान की आधारशिला है। ट्रिकल डाउन थ्योरी ऑफ डेवलपमेंट ’की सीमाओं के बारे में बोलते हुए, प्रणब दा ने हमेशा माना कि हमारे देश के गरीब खुद को बढ़ते भारत के आख्यान में सच्चे भागीदार के रूप में पाएंगे और उन्होंने इसके लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के बारे में उनका मानना था कि यह हमारे लोकाचार में अंतर्निहित हैं।

प्रिय बहनों और भाइयों!

प्रणब दा के राजनीतिक जीवन और उनके दर्शन को संक्षेप में याद करने के बादआइए अब हम आज के व्याख्यान के विषय पर आते हैं। ‘संविधानवाद: लोकतंत्र और समावेशी विकास का गारंटर’ विषय चुनने के लिए मैं शर्मिष्ठा जी और उनके सहयोगियों की प्रशंसा करता हूं। यह विषय और संबंधित मुद्दे प्रणबा दा को बहुत प्रिय थे।

संविधानवाद एक ऐसे देश के बारे में है जो कानूनों के एक निकाय द्वारा शासित होता है, जो संविधान में उल्लिखित प्रावधानों और स्थापित नियमों तथा उस भूमि की भावना और दर्शन से संचालित होता है। यह सिद्धांत सदियों के राजशाही और अभिजात वर्ग के शासन के बाद उभरा है, जिसने उस समय शासकों की मनमानी से लोगों के मूल अधिकारों और सम्मानों का घोर उल्लंघन होते देखा। संविधानवाद शासितों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए अंतर्निहित तंत्र के साथ राज्य के प्रत्येक अंग की भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों को परिभाषित करके इस तरह की मनमानी को रोकने का प्रयास करता है।

सभी वर्गों के लोगों के बीच व्यापक संभव परामर्श को सुनिश्चित कर इस तरह की मनमानी को रोकने के लिए सभी संभव प्रयास किए जाते हैं, जिन पर तत्कालीन सरकारों की इच्छा और विवेक से निगरानी भी की जाती है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारे राष्ट्र की विविधता और बहुलवाद को ध्यान में रखते हुए इस तरह के व्यापक परामर्श को सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रपतीय शासन के स्थान पर संसदीय लोकतन्त्र के स्वरूप को प्राथमिकता दी। प्रणब दा ने 2018 में नागपुर में आरएसएस के एक प्रशिक्षण शिविर को संबोधित करते हुए कहा था कि ऐसा लोकतंत्र एक उपहार नहीं बल्कि एक पवित्र मार्गदर्शक है।

हमारा संविधान सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों के लिए सहभागी लोकतंत्र के मार्ग पर चलने और न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सुनिश्चित करने का एक प्रभावी दस्तावेज़ है। यह एक पवित्र मार्गदर्शक है जो हमने खुद को दिया है और इसका अक्षरश: पालन करने की आवश्यकता है। शासन में प्रत्येक नागरिक को स्वर मिलना आवश्यक है जो कि लोकतंत्र की महत्वपूर्ण शर्त है। सभी को विकास के लाभों को सुनिश्चित करना समावेशी विकास की महत्वपूर्ण शर्त है। संविधानवाद का कड़ाई से पालन ही वास्तविक लोकतंत्र और समावेशी विकास को सुनिश्चित कर सकता है।

यह हमें हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र की स्थिति के मुद्दे पर लाता है क्योंकि हमने अपने कठोर संघर्ष के बाद मिली स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में प्रवेश किया है। स्वतंत्रता के बाद से हमारे राष्ट्र की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि लोकतंत्र का सुदृढ़ीकरण रहा है, जो कि एक राष्ट्र और एक लोकतंत्र के रूप में बचे रहने की हमारी क्षमता के बारे में की गई भविष्यवाणियों के विपरीत था। समय-समय पर चुनावों के साथ हमारे प्रयोगों और सफलता ने दुनिया को चकित कर दिया है क्योंकि कई नवजात राष्ट्र लोकतंत्र के साथ अपने प्रयास में विफल रहे हैं।

मेरे मानना है कि हमारी सफल लोकतांत्रिक यात्रा का नायक ‘आम भारतीय’ रहा है। गरीब और अनपढ़ आम भारतीय ने अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए संसदीय लोकतंत्र के चुने हुए साधन के साथ खड़े होने के लिए सभी बाधाओं को पार किया, यहां तक कि मतदान के दिन दैनिक वेतन भी छोड़ दिया। इस प्रक्रिया में, लगभग 5,000 सांसद, विधायक और एमएलसी नियमित रूप से संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए चुने जाते हैं, इस उम्मीद में कि वे लोगों की चिंताओं को प्रभावी ढंग से व्यक्त करेंगे और उनकी समस्याओं का समाधान ढूंढेंगे। वर्तमान प्रौद्योगिकी संचालित और जटिल वैश्वीकृत संदर्भ में, कानून निर्माताओं की जिम्मेदारियां कई गुना बढ़ गई हैं, यहां तक ​​कि आधुनिक भारत के निर्माण की मुख्य चुनौती एक कार्य प्रगति पर है।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से विधानसभाओं और संसद के भीतर जो कुछ हो रहा है वह एक प्रमुख चिंता बनकर उभरा है। जहां जन प्रतिनिधियों से व्यापक सार्वजनिक सरोकार के मुद्दों पर विचार-विमर्श करने और लोगों तथा राष्ट्र के हित के लिए प्रभावी कानून बनाने की अपेक्षा की जाती है, वहाँ संसदीय आचरण में गिरावट और कामकाज में ‘व्यवधान’ प्रमुख साधन के रूप में उभरा है। बाधित और निष्क्रिय विधायिकाएं संविधानवाद के महान सिद्धांत को नष्ट करती हैं। यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का घोर उल्लंघन।

निष्क्रिय विधायिकाएं देश के लिए कानून बनाने और नीतियां बनाने से पहले वांछित व्यापक परामर्श की परंपरा में बाधक बनती हैं। इस तरह के व्यवधान विधायिकाओं के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही के सिद्धांत को नकारते हैं, जिससे मनमानी की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है, जिसे संविधानवाद के अंतर्गत दुरुस्त किया जा सकता है।

हमारी स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में, हमारे विधानमंडलों की सुचिता को बहाल करने के लिए एक ठोस शुरुआत करने की अनिवार्यता है। प्रणब दा संसद सहित हमारी विधायिकाओं में व्यवधान की बढ़ती प्रवृत्ति से दुखी होते थे। वह विधायिकाओं में ‘शिष्टता, मर्यादा और गरिमा’ को बनाए रखने की आवश्यकता पर बल देते थे। उन्होंने कानून बनाने वाली संस्थाओं को प्रभावी बनाने के लिए ‘बहस, चर्चा और निर्णय’ और ‘बाधित न करें’ का एक सरल सूत्र सुझाया था।

सरकारों की नीतियों और शासन की व्यवस्था के खिलाफ सदन में विरोध करना जन-प्रतिनिधियों का अधिकार है। लेकिन भावनात्मक आधार पर ऐसे विरोधों में संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। इसे सुनिश्चित करने के लिए, मैं इस बात की वकालत करता रहा हूं कि ‘सरकार को प्रस्ताव देने दें; विपक्ष विरोध करता रहे और सदन अपना कामकाज निपटता रहे’।

हमारे देश की जनता द्वारा दिया गया पवित्र जनादेश और उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों पर जताए गए विश्वास को धोखा नहीं देना चाहिए। देश के 5,000 कानून निर्माताओं के बीच व्यवहार में बदलाव की जरूरत है, जो व्यवधानों का सहारा लेते हैं। हमारी विधायिकाओं की गरिमा को बढ़ाने का मिशन बहुत सरल है। प्रभावी संसदीय लोकतंत्र के लिए ‘मिशन 5,000’ है। यदि निर्वाचित सांसद, विधायक और विधान परिषद सदस्य अपने तौर-तरीकों में सुधार कर विधायिकाओं के अंदर उचित आचरण करना आरंभ कर दें तो हमारे कानून बनाने वाले निकाय निश्चित रूप से वर्तमान स्वरूप से बहुत अलग दिखाई देंगे। हमारे देश के लोग हमारे कानून बनाने वाले निकायों के कामकाज में इस तरह के गुणात्मक बदलाव की तलाश कर रहे हैं। उन्हें ऐसी अपेक्षा का अधिकार है, जिन्होंने लोकतंत्र को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। खासकर तब, जब यंग इंडिया अपनी वास्तविक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अधीर है।

‘मिशन 5000’का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए, जन प्रतिनिधियों को सदन में सकारात्मक रूप से प्रस्तुत करने के लिए प्रभावित करने हेतु लोगों द्वारा एक अभियान चलाये जाने की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। इस अभियान की सफलता के लिए विभिन्न तौर-तरीके अपनाए जा सकते हैं; लोग सदनों में व्यवधान पैदा करने वाले प्रतिनिधियों की पहचान करें और जब ऐसे विधि निर्माता संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों का दौरा करें तो लोग उनसे सवाल करें; #मिशन5000 सोशल मीडिया हैंडल बनाकर निर्वाचन क्षेत्र/राज्यवार व्यवधान डालने वालों के नाम पोस्ट कर विरोध जताएँ; नागरिकों को संबंधित विधायिकाओं और निर्वाचित प्रतिनिधियों के कामकाज पर चर्चा करने के लिए बैठकें आयोजित करने के लिए जागृत करें; ऐसे विधायकों के आचरण पर चिंता व्यक्त करते हुए दैनिक समाचार पत्रों को लिखें; सबसे महत्वपूर्ण है कि सदन के काम काज में बाधा डालने वालों के बारे में जनता याद रखे और आगामी चुनाव में मतदान करते समय उनके संसदीय आचरण में गिरावट के चलते बहिष्कार करे। इसका व्यापक उद्देश्य प्रतिनिधियों को उनके आचरण पर लोगों की चिंता से अवगत कराना है। कानून बनाने वाले निकाय और सदनों को बहस और चर्चा के लिए मंच बनाने की आवश्यकता है न कि व्यवधान का मंच बनाना। बाधित और निष्क्रिय विधायिकाएं लोगों के जीवन और हमारे देश के सपनों को बाधित कर सकती हैं।

‘प्रणब दा’ने एक बार कहा था कि संसद लोगों और राष्ट्र की आत्मा है। यदि लोकतंत्र की आत्मा की रक्षा करनी है, तो कानून निर्माताओं को कानून बनाने वाली संस्थाओं के भीतर और बाहर अपने आचरण के लिए उन्हें जवाबदेह ठहराना चाहिए।

स्वतंत्रता के इस ऐतिहासिक 75वें वर्ष में, मैं अपने देश के सभी 5,000 विधायी प्रतिनिधियों से अपील करता हूं कि वे इस वर्ष के दौरान संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही को बाधित न करने का संकल्प लें। इसके बाद, मैं उन्हें आश्वस्त कर सकता हूं कि विधानसभाओं में रचनात्मक आचरण की सुगंध और मीडिया और बड़े पैमाने पर लोगों से मिलने वाली सराहना को देखकर यही आचरण स्वभाव बन जाएगा।

यह ‘मिशन 5000’हमारे संसदीय लोकतंत्र के संरक्षकों के साथ हमारे विधायकों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के कामकाज पर नजर रखते हुए दृष्टिकोण और संसदीय आचरण में बदलाव की अपेक्षा के बीच शुरू किया जा रहा है।यह हमारे देश के लोकतंत्र में गुणात्मक सुधार सुनिश्चित करने में एक लंबा रास्ता तय करेगा। यदि ये 5000 निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं बदलते हैं और नहीं बदले जाते हैं, तो हमारा संसदीय लोकतंत्र अपनी चमक और आकर्षण खोकर खोखला हो जाएगा और यह हमारे देश के लिए अच्छा नहीं है। यह समय बदलाव की ओर बढ़ने का है।

प्रिय बहनों और भाइयों!

पिछले 75 वर्षों के दौरान, हमारे देश ने विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय प्रगति की हैं। लेकिन हमें उन उपलब्धियों का उत्सव मनाने से पहले अभी लंबा सफर तय करना है। हमें भारत के लिए अपने मिशन @100 को परिभाषित करने की आवश्यकता है। हमें अपनी स्वतंत्रता के 100वें वर्ष के लिए एक इच्छा सूची (विश लिस्ट) की आवश्यकता है। ऐसा ही एक व्‍यापक एजेंडा जिसका मैं प्रस्‍ताव करता हूं वह है; गरीबी और अशिक्षा से देश को मुक्त करना; सभी के लिए सुलभ और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करना; हमारे शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों की अच्छी संख्या दुनिया में शीर्ष पर है; लैंगिक भेदभाव को समाप्त करना; कार्यबल में महिलाओं की बढ़ी हुई और समान भागीदारी तय करना; सभी जरूरतमंद और पात्र के लिए रोजगार; अपने देश को ‘आत्मानिर्भर’ बनाने के क्रम में सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण की हिस्सेदारी को दोगुना कर कृषि पर निर्भर कार्यबल को काफी हद तक कम करना; खेती को लाभकारी उद्यम के रूप में सुनिश्चित करना और किसानों के सभी प्रकार के शोषण को समाप्त करना; समावेशी और सतत उच्च विकास रणनीतियों के माध्यम से असमानताओं को दूर करना; निरंतर उच्च विकास पथ के माध्यम से प्रति व्यक्ति आय में कई गुना वृद्धि करना; भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उचित स्थान दिलाना; पिछड़े वर्गों से देश को पहला प्रधानमंत्री मिला, कमज़ोर तबके से पहला प्रधानमंत्री बनाना और समावेशी राजनीति के क्रम में कम से कम आधा दर्जन महिला मुख्यमंत्रियों का होना; भारत नवाचार का प्रमुख केंद्र बनने के अलावा निवेश और अप्रवासियों के लिए पसंदीदा गंतव्य बन चुका है। मुझे विश्वास है कि प्रणब दा भारत के इस विजन @ 100 के साथ पूरी तरह से सहमत होंगे। मुझे विश्वास है कि नए भारत के निर्माण के लिए हाल के वर्षों में हमारे देश के सामूहिक प्रयास की तीव्रता को देखते हुए, यह लक्ष्य हम प्राप्त कर सकते हैं। हमारे पास इस मिशन में सफल होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसलिए, अगले 25 वर्ष हमारे राष्ट्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

स्वतंत्र भारत के 100वें वर्ष तक इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिएहमारी विधायिकाओं का प्रभावी ढंग से काम करना बहुत आवश्यक है और ‘मिशन  5000’जिसका मैंने पहले उल्लेख किया था, काफी महत्व रखता है।

प्रिय भाइयों और बहनों!

प्रणब दा और मैं अलग-अलग वैचारिक संगठनों से आते हैं और विपरीत दृष्टिकोण के रहे होंगे। लेकिन, हम दोनों के लिए भारत सर्वप्रथम आता है। प्रणब दा जब नागपुर में आरएसएस के प्रशिक्षण शिविर को संबोधित करने वाले भारत के पहले पूर्व राष्ट्रपति बने, तो यह व्यापक हित में सामान्य विभाजन से ऊपर उठने का एक ठोस दस्तावेज़ बना था।

राष्ट्रवाद के मुद्दे पर, उन्होंने समर्थन किया जिसे मैं यहाँ उद्धृत करता हूं: “राष्ट्र को ‘समान संस्कृति, भाषा या इतिहास साझा करने वाले लोगों के एक बड़े समूह’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। राष्ट्रवाद को ‘अपने राष्ट्र के साथ पहचान’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। देशभक्ति को अपने देश के प्रति समर्पण के रूप में परिभाषित किया जाता है। राष्ट्रवाद और देशभक्ति के संबंध में जो कोई भी बात कर रहा है, वह उससे बढ़कर नहीं है जो प्रणब दा ने कहा था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प्रणब डा विवादास्पद मुद्दों के पथ-प्रदर्शक थे और उन्होंने राष्ट्रवाद के मुद्दे को सुलझाया।

वह सर्वसम्मति बनाने वाले थे औरमुझे विश्वास है कि अगर आज प्रणब दा जीवित होते, तो हाल ही में पूर्वव्यापी कराधान को पूर्ववत करने का वह स्वागत करते।

प्रणब दा हर वर्ष दशहरा उत्सव के लिए अपने गांव मिराती जाते थे। वह सर्वश्रेष्ठ भारतीय परंपराओं और लोकाचार के उत्तराधिकारी थे और उसे जीते थे।

प्रणब दा 50 से अधिक वर्षों तक हर उस चुनौती का एक आंतरिक हिस्सा रहे जिसका हमारे देश ने सामूहिक रूप से सामना किया। उन्होंने ऐसा कोविड-19 महामारी के दौरान भी किया। वह भी इस महामारी की चपेट में आए और उन्होने तमाम भारतीयों की पीड़ा के प्रति सहानुभूति जताई। प्रणब दा उन व्यक्तियों में से एक थे जिनके लोगों से जुड़ने के अपने तरीके होते हैं।

मैं वास्तव में प्रणब दा के जीवन और कार्यों पर एक नज़र डालने अवसर प्राप्त होने पर अनुभव कर रहा हूं। और इस अवसर पर मैं अपनी मातृभूमि के महान सपूतों में से प्रणब दा को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

मैं,मुझे यह अवसर देने के लिए ‘प्रणब मुखर्जी लिगेसी फाउंडेशन’ का धन्यवाद करता हूं। मुझे सुनने के लिए मैं सभी प्रतिभागियों को भी धन्यवाद देता हूं। प्रणब दा का जीवन और कार्य प्रेरणा के एक निश्चित स्रोत हैं। आइए हम प्रणब दा और हम सभी के सपनों को साकार करने के लिए अपनी ओर से कुछ प्रयास करें।

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