नैनबाग टिहरी गढ़वाल/मसूरी
मसूरी के निकटवर्ती टिहरी गढ़वाल जौनपुर विकास खंड की अगलाड़ नदी में सांस्कृतिक विरासत का अनोखा पर्व मौण मेंला आयोजित किया गया, जिसमें भारी संख्या में ग्रामीणों ने अगलाड़ नदी में पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछलियांे को पकड़ा। इस मेले में जौनपुर के साथ ही जौनसार व रंवाई के ग्रामीण भी मछलियों को पकड़ने आते हैं ।
मसूरी से लगे टिहरी जनपद के जौनपुर विकास खंड की अगलाड़ नदी में लगने वाले मौण मेले को राजमौण भी कहा जाता है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत में जौनपुर जौनसार व रंवाई का विशेष महत्व है, इस क्षेत्र कों पांडवों की भूमि भी कहा जाता है यहां वर्ष भर बार त्योहारा होते रहते हैं। वैसे तो पूरे उत्तराखंड में मेले व त्योहार होते रहते हैं हर माह की संक्रांति को पर्व के रूप में मनाया जाता है लेकिन जौनपुर, जौनसार व रंवाई अपनी अनोखी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है। जिसमें मछली मारने का मौण मेला प्रमुख है। जो पूरे देश में अन्यत्र कहीं नहीं होता। व कहा जाता है कि जब यहां राजशाही थी तब टिहरी महाराजा इस में खुद शिरकत करने आते थे। इस मेले की अनेक विशेषताएं हैं पहले तो यह अपने आप में अनोखा मेला है वहीं क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत में विशेष महत्व रखता है। इस मेले की खासियत यह है कि हर वर्ष मेले के आयोजन का जिम्मा अलग अलग क्षेत्र के लोगों का होता है जिसे स्थानीय भाषा में पाली कहते हैं। जिस क्षेत्र के लोगों की बारी होती है वहां के लोग एक दो माह पहले ही तैयारी कर लेते हैं। क्यों कि इसमे मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ीबूटी का प्रयोग किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में टिमरू कहते हैं। इस पौधे की छाल को निकाला जाता है और इसे सुखा व कूट कर इसका पाउडर बनाया जाता है जिसे नदी में डाला जाता है,इससे मछलियां बेहोश हो जाती है, और लोग इन्हें नदी में जाकर पकड़ते हैं।
जिस क्षेत्र की बारी होती है वहां के लोग बाकायदा तय दिन पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ नाचते गाते उस स्थान पर जाते हैं जहां से मौण डाला जाता है। पुराने समय से ही उस स्थान को मौण कोट कहते हैं, यहां पर गांव का मुखिया पारपंरिक तरीके से पहले टिमरू के पाउडर को डालता है उसके बाद सारा पाउडर जो बड़ी मात्रा में रहता है नदी में डाला जाता है जिसके बाद हजारों की संख्या में लोग मछलियों को पकड़ने नदी में कूद पड़ते हैं देखते ही देखते पूरी नदी मछली मारने वालों से पट जाती है। तथा करीब पांच किमी क्षेत्र में मछली पकड़ने वाले ही नजर आते हैं। जो यमुना नदी तक जाते हैं। व मछली मारने के बाद ग्रामीण अपने घरों को लौट जाते हैं। इस मौके पर उनके चेहरे की रौनक देखते ही बनती है। नदी में मछली मारने वो लोग भी उतरते हैं जो मांस मछली नहीं खाते लेकिन अपनी परंपरा व संस्कृति से लगाव के चलते वह मछलियां पकड़ते है व घर में खाने वालों को परोसते है। इस मेले में मछलियां पकड़ने वालों के हाथों में पारंपरिक उपकरण होते हैं जिसमें कंडियाला, फटियाड़ा, जाल, खाडी, मछोनी आदि होते हैं। जिससे लोगों ने मछलियां पकड़ी। इस बार पाउडर तैयार करने की बारी अपर लालूर पटटी की थी जिसमे देवन, घंसी, सल्टवाड़, ढकरोल, टिकरी, हडिया गांव, छानी, मिरिया गांव व खडकसारी गांव के लोगों ने पाउडर तैयार किया व पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ नाचते गाते मौण कोट पहुंचे व वहां से नदी में पाउडर डालते ही हजारों लोग मछलियों को पकड़ने अपने पारंपरिक साजोसामान के साथ नदी में कूद गये।