हिमालय के काफल पाक्कु कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल हिंदी साहित्य के वरदानी पुत्र
-शूरवीर सिंह भंडारी-
प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल हिंदी साहित्य के उन चमचमाते सितारों में शुमार थे जिनकी शब्दों की रोशनी से आज साहित्याकाश झूम उठता , लेकिन उनके जीवन की मंदाकिनी ने उन्हें महज 28 वर्ष की अल्पायु में उन्हें छोडकर गंगासागर की और निकल गई। इसलिए कवि को आभास था कि उनकी आयु बहुत कम है। क्षय रोग यानि टीबी से ग्रसित कवि ने तभी लिख दिया था कि –
नदी चली जाएगी यह न कभी ठहरेगी, उठ जाएगी शोभा, रोके यह न रूकेगी।
झर जाएंगे फूल, हरे पल्लव जीवन के, पड जाएंगे पीत एक दिन शीत मरण के।
मेरे पास आज इतना धन है देने को, नए फूल हैं पांवों के नीचे बिछने को। नए मेघ हैं नई चांदनी है नवयौवन, निर्मल मन है, और स्नेह से छल-छल लोचन !
कवि की अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना से जन सामान्य भी करूणा के उस गहरे सागर मे डुबकी लगा देता है जब मृत्यु शया पर लेटे कवि लिखता है-
प्यारे गीत, बहुत दिन रहे साथ हम जग में, रोते-गाते हुए बढे; आज समाप्त हुई पथ की, अब मुझे विदा दो। लौटो तुम, जाने दो दूर मुझे जीवन से!
हिमालय की गोद में प्रकृति के सुकुमार कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल का जन्म 20 अगस्त 1919 को दिन गुरूवार भाद्रपद पांच, मिथुन राशि, आद्रा नक्षत्र के प्रथम चरण संवत 1976 को हुआ। कवि का देहावासन रविवार 21 गते भादो विक्रमी संवत 14 सितंबर 1947 को पावंलिया मे हुआ। कवि क्षयरोग यानि टीबी से ग्रस्त थे। तत्कालीन समय में टीबी को छूत की बीमारी के रूप में जाना जाता था। जिस तरह से आजकल कोविड-19 यानि कोरोना वाइरस का प्रकोप दुनियाभर में फैला है। उस वक्त ऐसी ही असाध्य बीमारी थी टीबी। छूत की बीमारी के कारण कवि को सामाजिक पीडा की दोहरी मार झेलनी पडी। ईश्वर ने इस यशस्वी कवि को मात्र 28 वर्ष और 24 दिन का समय ही दिया। इतनी अल्पायु में भी कवि ने हिंदी साहित्य और काव्य को विराट खजाना दिया। जिसका मूल्यांकन अब होने लगा है। इनका जन्म रूद्रप्रयाग, तत्कालीन समय में तल्ला नागपुर के मालकोटी गांव में कुलीन राजपूत ठाकुर भोपाल सिंह बत्र्वाल के घर मे हुआ। इनकी माता का नाम श्रीमती जानकी देवी । कवि का एक भाई जयकृत सिंह और बहिन कुंवारी, सत्यवती और आनंदी । चंद्रकुंवर का बचपन का नाम कुंवर सिंह था। कालांतर में कई समाचार पत्रों में इनकी कविताएं चंद्रकुंवर के नाम से प्रकाशित होने लगी। और कवि चंद्रकुंवर के नाम से जाने जाने लगे। हिमालय का यह कोमल, गीत गंधर्व, काफलपाकू कवि की प्रारंभिक शिक्षा प्राइमरी स्कूल उडामांडा, मिडिल नागनाथ पोखरी, हाईस्कूल मैसमोर पौडी, इंटर डीएवी कालेज देहरादून, बीए इलाहाबाद से उत्तीर्ण किया। कवि ने प्राचीन भारतीय इतिहास में लखनउ विश्वविद्यालय में एम ए में प्रवेश लिया। मगर अस्वस्थता के चलते पढाई जारी नही रख सके। और अपने घर को लौट गए। कवि के अभिन्न मित्रों में से स्व शंभूप्रसाद बहुगुणा, बुद्विबल्लभ थपलियाल श्रीकंठ के अलावा साहित्यकार स्व उमाशंकर सतीश और डा योगंबर सिंह बत्र्वाल ने हिमवंत काव्य के उन्नायक के रूप में भूमिका अदा की। चंद्रकुंवर विलक्षण प्रतिभा के धने थे। इनके पिता भोपाल सिंह बत्र्वाल अध्यापक थे। चंद्रकुंवर ने पौडी, मसूरी, देहरादून, प्रयाग और इलाहाबाद में रहकर अपने कविता संसार का विस्तार किया। जीवन के अंतिम दिनों में दर्जनों रचनाएं की। इनकी प्रमुख काव्य गं्रंथों में नंदनी, गीत माधवी, पयस्विनी, कंकड-पत्थर,, सुंदर असुंदर, साकेत परीक्षण, जीतू, प्राणयिनी, विराट ह्रदय, नागिनी आदि प्रमुख हैं।
कवि ने मसूरी से राजपुर टोल पैदल चलकर जिस कविता का सृजन किया। उसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। ़़ऋषिपर्णा नदी के सौंदर्य और लावण्यता पर लिखी यह कविता-
हे शालमेखले, किस गिरि से तुम इतना रूप लिए उतरी, आंखों में आधा स्वर्ग खुला, अंगों में उन्मद सुराभरी। घाटी में यहां फैलता है लावण्य तुम्हारा, तुम पर गिरि से टकराकर, मूर्छित होती कुहू ध्वनि धारा, यह कुंज निराला यहां फूल खिल पडते इन चपल अंगुलियों में रहस्य-इंगित के द्वारा, तुम प्यासी ़ऋषिपर्णा के तट पर आमों की छाया प्रिय गहरी, है दूर सह्रस्तधारा का जल अब यही बिताओ दोपहरी।
कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल को छायीवादी कवि भी माना जाता है। जब कवि कविताएं लिख रहा था। उस वक्त देश में स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था। कवि की कविताओं में स्वंतत्रता आंदोलन की कसक भी देखने को मिलती है। रूग्णावस्था में भी कवि ने कविताओं को लिखना नही छोडा, और हमेशा ही अपने जीवन और लेखन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रहा, लिखते है-
मैं मर जाउंगा पर मेरे जीवन का आनंद नही, झर जाएंगे पत्र-कुसुम-तरू, पर मधु प्राण बसतं नही।
मौजूदा समय में जिस तरह से माॅब लिंचिंग समाज और राजनीति में भयंकर और कष्टकारी रूप ले चुका है। ऐसा उस वक्त होता तो कवि की इस कविता पर बवाल हो गया होता, कविता की पंक्तिंया कुछ यू हैं-
पंडित जी बोले -स्वर्गलोक में संस्कृत बोली जाती है, मुल्ला जी बोले-अल्लाह को अरबी जुबां ही भाती है, इस पर मचा भयानक शोर, होने लगी लडाई धोर, मुल्ला जी ने पकडी चोटी-पंडित जी की मोटी-मोटी, पंडित जी ने खैंची दाढी मुल्ला जी की नौची झाडी ।
यह बहुत स्वाभाविक है कि दुनिया का कोई भी कवि हो। अपनी पृष्ठभूमि और मातृभूमि की माटी से जुडा रहकर अपने साहित्य संसार को आगे बढाता है। चंद्रकुंवर ने भी ऐसा ही किया। अपने पैतृक गांव मालकोटी पर कविता लिखी-
जहां विकल हिम शैलों से करते मृदु गुंजन झरने, जहां नील नभ की छवि को मेघ सदा लगते भरने। चीडों में गुंजन करती चलती मादक पवन जहां, तरू छांहों से ढके हुए, खडे है भवन जहां। थे रत्नों से शैल भरे, थी शैलों से भरी यहीं , हिमगिरि के अंचल में था मेरा घर भी यहीं कहीं। अंागन में थी खडी हुई छोटी-सी दाडिम डाली, मधु को देख उमड आती थी कि जिस के मुख पर लाली।
चंद्रकुंवर बत्र्वाल जब दुनिया से रूखसत हो गए। उसके बाद उनकी कविताओं पर देश के साहित्यकारों के बीच चर्चा होने लगी। पं शंभु प्रसाद बहुगुणा ने उनकी कविताओं को संकलित कर लखनउ से प्रकाशित करवायी। कविवर की मृत्यु के बाद देश के जाने-माने साहित्यकार डा वासुदेव शरण अग्रवाल, डा गोविंद चातक, उमेशचंद्र मिश्र, डा नामवर सिंह, डा लक्ष्मी सागर वाष्र्णेय, प्रो हरिशंकर मूलशंकर मलानी आदि ने उनको संभावनाओं का कवि कहा। और कहा कि चंद्रकुंवर जिंदा होते तो हिंदी साहित्य और काव्य को बहुत आगे लेकर जाते। खासकर हिमवंत काव्य प्रेमियों को भारी क्षति हुई हैं।
चंद्रकुंवर को काफलपाक्कु कवि भी कहा जाता है। उत्तराखंड में काफल एक जंगली फल है। इस पर उनकी कविता-
पुनः वही स्वर आज कई वर्षों में दर्शन, पुनः वही स्वर बदला कितना मेरा जीवन।
पहले तुम को देख चरण चंचल होते थे, आज उमडता है मेरी आंखों में रोदन।
पके वनों में काफल तुम अपनी वाणी से भेज रहे हो पहले जैसा निमंत्रण
काफलपाकू-काफलपाकू-काफलपाकू
कवि चंद्रकुंवर क्षयरोग से इतने व्याकुल और असहाय हो गए कि कालीदास के बाद दुनिया की सबसे श्रेष्ठतम कविता लिखकर चले गए। यम-यमी संवाद के नाम से यह कविता-
बैठ मृत्यु के द्वारों पर भीषण निश्चय से, मैं गाता हूं यम का यश, वैवस्त यम का। क्षीण कंठ है मेरा, क्षण-क्षण पडते जाते मेरे हाथ शिथिल, मेरा उर कुटिल मृत्यु ने छानकर दिया छलनी-सा, जीवन की धारा कभी बह गई, इससे यदि पूरा न गा सकूं। तो न कुपित होना, हे गहन मृत्यु के स्वामी, मुझे क्षमा करना हे यम, हे अंतर्यामी।
उपरोक्त कविता में कवि यमराज का यशोगान कर रहा है और मोक्ष यानि मुक्ति पथ पर ले जाने के लिए प्रार्थना कर रहा है। साथ ही कवि ने यमराज से यह भी क्षमायाचना की कि क्षयरोग के चलते मेरा कंठ क्षीण हो गया है। हे यम तुम्हारी शान में मै गीत नही गा पाया तो मुझे माफ करना। किस तरह के प्रतीक और मृत्यु से न घबराना, मृत्यु को आमं़ित्रत करना, दुनिया में ऐसे विलक्षण कवि शायद ही होंगे। कीट्स और जाॅन मिल्टन ने पैराडाइज लाॅस्ट में जरूर कुछ ऐसे भाव दिए। कवि चंद्रकुंवर ने मरने से पहले एक गीत और गाया-
अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड नदी मेरी, छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी। आंखों में सुख से पिघल-पिधल ओठों में स्मितियां भरता, मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता।
कवि को मालूम है कि जो इस दुनिया में आता है उसका मरण भी निश्चित है। उनकी इस कविता के बिंव से यह महसूस किया जा सकता है-
नदी चली जाएगी यह न कभी ठहरेगी, उठ जाएगी शोभा, रोके यह न रूकेगी।
झर जाएंगे फूल, हरे पल्लव जीवन के, पड जाएंगे पीत एक दिन शीत मरण के।
रो-रोकर भी फिर न हरी यह शोभा होगी, नदी चली जाएगी यह न ठहरेगी।
फैला सबके उपर वही सुनील गगन है, छूती सबको सदा वही मृद मंद पवन है।
चरों ओर वही नदियां है वही सरोवर, वही वृक्ष हैं, पर भाग्यों में कितना अंतर।
हंसता है कोई, कोई करता क्रंदन है, फैला यघपि सबके उपर वही गगन है।
हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल की अप्रकाशित रचनाओं और उनके रचना संसार को जन जन तक पहुंचने की दिशा में चंद्रकुंवर बत्र्वाल शोघ संस्थान मसूरी निरंतर प्रयत्नशील है। हर साल उनकी पुण्य तिथि और जन्म तिथि पर समूचे उत्तराखंड के महाविद्यालयों, शहरों और कस्बों में उनकी रचनाओं को पाठ किया जाता है। और अन्य कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते है। मसूरी में चंद्रकुंवर बत्र्वाल शोघ संस्थान का जिम्मा इस लेख के लेखक ने ले रखा गया है। चंद्रकुंवर बत्र्वाल शोध संस्थान मसूरी के अथक प्रयास और नगरपालिका मसूरी के तत्कालीन अध्यक्ष श्री मनमोहन सिंह मल्ल, पालिका के समस्त सभासद गण और अधिकारी और कर्मचारियों के सहयोग से 2 सितंबर को मसूरी गोलीकांड की बरसी पर मुख्यमंत्री श्री ़ित्रवेंद्र सिंह रावत के कर कमलों से मालरोड पर कविवर की प्रतिमा का लोकार्पण किया गया। मसूरी में संस्थान द्वारा विगत कई वर्षो से सम्मान समारोह आयोजित किए गए। जिसमें उत्तराखंड के सुप्रसिद्व लोक गायक श्री नरेंद्र सिंह नेगी, पदमश्री प्रीतम भरतवाण, लेखक प्रो गणेश सैली, स्टीफन आल्टर, शिक्षाविद स्व गंगा प्रसाद बहुगुणा, जाने-माने चिकित्सक डा सुनील सैनन, कर्नल अजय कोठियाल, इतिहासकार जयप्रकाश उतराखंडी, गोपाल भारद्वाज, सुप्रसिद्व चित्रकार स्व बी मोहन नेगी, कुमायूं के सुप्रसि़द्व कवि मथुरादत्त मठपाल जिन्होंने हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल की कविताओं को कुमायूंनी बोली-भाषा में अनुवाद किया। इसके अलावा उत्तराखंड वन विभाग के पीसीसीएफ रहे डा आरबीएस रावत, प्रख्यात ज्योतिषाचार्य स्व जयकृष्ण शाह, पत्रकार राजू गुसाई समेत अनेक लोगों को सम्मानित किया गया। सम्मान समारोह के पीछे की स्पष्ट मंशा यह थी कि समाज के जो नामचीन लोग है। उनके जेहन में हिमवंत काव्य को पहुंचाना था। और हिमवंत कवि की कविताओं आगे बढे यह प्रमुख ध्येय था। हुआ भी यही। कुछ ही सालों में हिमवंत कवि की कविताओं को सुनने और समीक्षा के लिए प्रतिवर्ष 14 सितंबर की लोग प्रतीक्षा करने लगते है। अब संस्थान ने निर्णय लिया के सम्मान समारोह छोड स्कूली बच्चों के बीच जाकर हिमवंत काव्य का रसपान करवाया गया। चंद्रकुंवर बत्र्वाल शोध संस्थान मसूरी विगत तीन सालों से हिंदी काव्य में चद्रकुंवर बत्र्वाल का योगदान विषय पर भाषण प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है। यह काफी सार्थक सिद्व हुआ है। प्रतिभागियों को करीब 14 हजार रूपये के नकद पुरस्कार और स्मृति चिहन भी प्रदान किए जाते है। इस प्रतियोगिता में हिंदी माध्यम के साथ ही मसूरी के प्रतिष्ठित अंग्रेजी और कांवेंट स्कूल के छात्रों में प्रतिभाग करने की लालसा बलवति हुई है। पिछले दो सालों से वाइनवर्ग ऐलन स्कूल के छात्र पहले स्थान पर रहे हंै। इससे मालूम होता है कि अंग्रेजी और कांवेंट स्कूल भी हिमवंत काव्य के रसिक है। शोध संस्थान का यह प्रयास हिमवंत कवि बर्त्वाल के लिए यही श्रद्वांजलि है।
मसूरी
हिमवंत चंद्रकुंवर बर्त्वाल की 75 पुण्यतिथि पर चंद्रकुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान और द हिल्स आफ मसूरी के
संयुक्त तत्वावधान में मालरोड स्थित कविवर की प्रतिमा पर श्रद्वांजलि का कार्यक्रम
आयोजित किया जाएगा। कविवर की पुण्यतिथि और हिंदी दिवस के अवसर पर 14 सिंतबर को 12 बजे से श्रद्वांजलि कार्यक्रम होगा। इसके साथ ही कविवर की काव्य संसार पर भी चर्चा की जाएगी। उक्त आशय की जानकारी संस्थान के मसूरी सचिव नरेंद्र पडियार ने दी।