घनीभूत वेदना की अभिव्यक्ति वाला एक गीत है निशंक का

उत्तराखंड

डाॅ0 वीरेंद्र बर्त्वाल, देहरादून

डॉ रमेश पोखरियाल निशंक

इन्सान का स्वभाव है कि वह कष्ट से छुटकारा पाना चाहता है, लेकिन वेदना कभी इतनी घनीभूत हो जाती है कि वह न चाहते हुए भी उसे गीत के रूप में गा देता है। और वेदना की अभिव्यक्ति उसे एक गहरा सूकून देती है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य भी है। सुप्रसिद्ध गीतकार, कवि और साहित्यकार डाॅ0 रमेश पोखरियाल निशंक की पुस्तक ’भूल पाता नहीं’ से उद्धृत एक गीत में जीवन के ऐसे ही कटु सत्य का मार्मिक उद्घाटन है, जिसे न चाहते हुए भी हमें स्वीकारना ही पड़ता है।
प्रसिद्ध संगीतकार संजय पांडेय ने करुण रस आधारित इस गीत को मनोहारी सुरों में पेश किया है, जो सोशल मीडिया और संगीत की दुनिया में इन दिनों खासी वाहवाही बटोर रहा है। महज हारमोनियम पर गाये इस गीत में जीवन में भले ही विवशताएं दर्शायी गयी हैं, लेकिन कर्तव्यपरायणता को प्रमुखता दी गयी है। चुनौतियों से जूझने, समय का सदुपयोग करने और किसी पर दोषारोपण न करने की प्रेरणा देने वाला यह गीत ’कर्म पथ पर चलते रहो’ का सार है। गीतकार डाॅ0 निशंक ने संुंदर सांकेतिक भाषा में लिखा है सफलता यूं ही नहीं मिलती। सफलता का शिखर भले ही चमचमाता है, लेकिन उसकी बुनियाद में पसीने का समुद्र भी तो होता है।
दौर ऐसा भी था मन परेशान था
पर समय है जो कभी रुकता नहीं
आज बेचैन है वेदना ये मेरी
वरना गीतों में इसको मैं गाता नहीं, गुनगुनाता नहीं।
इस संबंध में डाॅ0 निशंक का कहना है कि गीत और कविताएं हृदय के स्वाभाविक उद्गार होते हैं, जो समुचित अवसरों पर अनायास ही फूट जाते हैं, जैसे भारी बारिश के बाद पृथ्वी से जलधाराएं फूट जाती हैं। इन उद्गारों को बस, शब्दों में हल्का सा संवारना होता है। डाॅ0 निशंक के अनुसार ’भूल पाता नहीं’ का उक्त गीत उनके जीवन-पथ में उपजे संघर्षों से जूझने का सार है। इसमें बताने का प्रयास किया गया है कि सुख और आनंद कोई भी हो, वह हमेशा कष्टों की नींव पर खड़ा होता है।

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