स्टूडेंट्स को ट्रोल मत कीजिए

उत्तराखंड देश शिक्षा सोशल मीडिया वायरल

 

           डॉ  सुशील उपाध्याय

अपवाद छोड़ दें तो लगभग पूरा देश 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा के बिना ही स्टूडेंट्स को पास करने जा रहा है। सभी को पता है कि यह निर्णय कोरोना की बेहद विषम परिस्थितियों के बीच लिया गया है। पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर बोर्ड परीक्षा के छात्र-छात्राओं को केंद्रित करके कुछ जोक, कमेंट और हल्की टिप्पणियां की जा रही हैं। इस पीढ़ी को ऐसे निशाना बनाया जा रहा है, मानो इन्होंने स्कूल जाए बिना ही 10वीं अथवा 12वीं का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया है।
इन्हें अपने घरों के भीतर भी ताना या उलाहना सुनने को मिल रहा है। लोगों का यह व्यवहार चिन्ताजनक है। यहां एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि क्या वास्तव में देश के सारे छात्र-छात्राएं परीक्षा दिए बिना ही 10वीं या 12वीं पास करना चाहते हैं ? इस सवाल का जवाब बहुत आसानी से किया जा सकता है कि बेहद कमजोर और पढ़ाई के अनिच्छुक छात्र-छात्राओं को छोड़ दें तो प्रायः सभी ने बोर्ड परीक्षा के लिए तैयारी की हुई थी। बोर्ड परीक्षा न हो पाने के लिए कम से कम छात्र-छात्राओं को सीधे तौर पर कोई दोष नहीं दिया जा सकता।
परीक्षा न कराने के निर्णय का एक अन्य पहलू बहुत ही महत्वपूर्ण है। वो ये कि जब हम किसी की योग्यता का निर्धारण करते हैं तो वो साल भर की पढ़ाई के बाद 3 घंटे की परीक्षा के आधार पर कर दिया जाता है। उसकी तुलना में जब मौजूदा पद्धति, जिसके बारे में सीबीएसई ने स्कूलों को दिशा-निर्देश भेजे हैं, को लागू करते हैं तो ज्यादा बेहतर रिजल्ट तैयार होने की संभावना बनती है। सेकेंडरी एग्जाम के मामले में सीबीएसई ने रिजल्ट का निर्धारण कुछ अंक नौवीं की परीक्षा, कुछ आंतरिक परीक्षा, कुछ अर्धवार्षिक परीक्षा और कुछ प्री-बोर्ड परीक्षा को वेटेज देते हुए किया है। इससे जो रिजल्ट तैयार हो रहा है, वह वास्तव में सतत मूल्यांकन की प्रक्रिया का एक बेहतरीन उदाहरण बनने जा रहा है।
मौजूदा चुनौतीपूर्ण स्थितियों में लागू की गई यह पद्धति भविष्य के लिए भी एक महत्वपूर्ण नजीर बन सकती है। केवल इस बार के एग्जाम के लिए ही नहीं, बल्कि सीबीएससी और भारत के शिक्षा मंत्रालय को भविष्य के लिए भी इसी पद्धति को थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ लागू कर देना चाहिए। यानी बच्चे को यह पता हो कि वह नौवीं क्लास में जो पढ़ाई कर रहा है, उस आधार पर मिलने वाले अंकों का उपयोग 10वीं के एग्जाम में भी होगा। इस तरह नौवीं-दसवीं के दो साल के चार बड़े एग्जाम के माध्यम से स्टूडेंट का मूल्यांकन संभव हो सकेगा। वैसे, सीबीएसई स्कूलों में पहले से ही 20 फीसद अंकों का निर्धारण स्कूल स्तर पर किया जाता रहा है। इसमें थोड़ी और बढोत्तरी की जा सकती है। यदि मौजूदा पद्धति का अच्छा परिणाम आता है तो भविष्य में 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा के अंकों को अंतिम मानने की बजाय नौवीं-दसवीं और 11वीं-12वीं के बीच संपन्न हुई परीक्षाओं के अंकों का औसत ही अंतिम रिजल्ट में प्रयोग में लाया जाना चाहिए।
इस वक्त जो परिजन या आसपास के लोग अथवा शिक्षा से जुड़े कुछ लोग स्टूडेंट्स पर नकारात्मक कमेंट कर रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि इस स्थिति के लिए किसी भी स्तर पर छात्र-छात्राएं जिम्मेदार नहीं हैं। ज्यादातर छात्र-छात्राएं विगत फरवरी से अब तक के लगभग 17 महीने में स्कूल नहीं जा पाए हैं। यह उनके जीवन का भी सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण वक्त है। सेकेंडरी और सीनियर सेकेंडरी लेवल पर पढ़ाई कर रहे हैं बच्चे 14 से 18 साल के बीच के हैं। इसी उम्र में उन्हें दोस्तों के साथ अपना रिश्ता प्रगाढ़ करना होता है। विपरीत लिंग के प्रति उनके मन में जो जिज्ञासा और आकर्षण का भाव होता है, वह भी इसी दौर में आकार ग्रहण करता है। उन सबकी जिंदगी में यह समय बहुत ही मुश्किल रहा है। अब भी कोई यह बताने की स्थिति में नहीं है कि आगामी जुलाई-अगस्त तक सभी स्कूल पुरानी व्यवस्थाओं के अनुरूप ही खुल जाएंगे या नहीं।
इस पीढ़ी को एक नहीं, बल्कि दो शैक्षिक सत्र की पढ़ाई खराब होने का नुकसान उठाना पड़ा है। ऑनलाइन पढ़ाई, ऑनलाइन परामर्श, बहुत सारे नोट्स या गैजेट, इन सब को मिला लें तो भी स्कूल का कोई विकल्प नहीं बनता। इन स्थितियों में स्टूडेंट्स को कई स्तरों पर सपोर्ट दिए जाने की आवश्यकता है। उन्हें इस बात का एहसास कराया जाए कि मौजूदा दौर सभी के लिए कई तरह की परेशानी लेकर आया। यह परेशानी उनकी अकेले की नहीं है, बल्कि सभी इससे प्रभावित हैं। वैसे, मौजूदा चुनौती इसलिए भी बड़ी है कि बहुत सारे बच्चों के घरों में कोई न कोई व्यक्ति कोरोना से पीड़ित रहा है। इतना ही नहीं लगभग 3 लाख परिवारों ने अपना कोई परिजन भी खोया है।
देश में कोरोना पीड़ित रहे लगभग 3 करोड़ परिवारों में यकीनन ऐसे बच्चे जरूर होंगे जो सेकेंडरी या सीनियर सेकेंडरी लेवल पर पढ़ रहे हैं। इस स्थिति का कुछ ना कुछ असर इन बच्चों की मानसिक और भावनात्मक सेहत पर भी पड़ा ही है। इसका सीधा अर्थ यही है की व्यस्क लोग रोजगार, आर्थिक स्थिति और स्वास्थ्य आदि को लेकर जिस प्रकार से चिंतित हैं, उससे भी किशोर उम्र के बच्चे परोक्ष तौर पर प्रभावित हुए हैं। यह एक विश्वव्यापी समस्या है, जिससे हम सभी प्रभावित हैं। ऐसे में, बोर्ड परीक्षा न होने या बोर्ड परीक्षा न दे पाना किसी भी छात्र के लिए लानत की वजह नहीं हो सकता।
सोशल मीडिया माध्यमों कुछ लोग ऐसे स्टूडेंट्स को ट्रोल कर रहे हैं। उन्हें अपमानित किया जा रहा है कि वे बिना परीक्षा पास हो गए हैं। ऐसी सोच और ऐसी दिशा का इन किशोरों पर कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है। और हां, उस बात को भी याद रखिए जो हर साल दोहराई जाती है कि अच्छे या बुरे अंक हमेशा ही भविष्य का निर्धारण नहीं करते। बोर्ड परीक्षा में बहुत औसत अंक पाने वाले व्यक्ति भी अपने जीवन में उल्लेखनीय और उदाहरणीय सफलताएं प्राप्त करते देखे गए हैं

           (लेखक प्रख्यात शिक्षाविद है )

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